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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


गुल्‍ली-डंडा मुंशी प्रेम चंद

2)

सहसा एक खुली जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने को बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहाँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?
एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया? गया चमार?
मैंने यों ही कहा-हाँ-हाँ वही। गया नाम का कोई आदमी है तो? शायद वही हो।
'हाँ, है तो।'
'जरा उसे बुला सकते हो?'
लड़का दौड़ता हुआ गया और एक क्षण में एक पाँच हाथ के काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर से ही पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला-कहो गया, मुझे पहचानते हो?
गया ने झुककर सलाम किया-हाँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं! आप मजे में हो?
'बहुत मजे में। तुम अपनी कहो।'
'डिप्टी साहब का साईस हूँ।'
'मतई, मोहन, दुर्गा सब कहाँ हैं? कुछ खबर है?
'मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिया हो गए हैं। आप?'
'मैं तो जिले का इंजीनियर हूँ।'
'सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे?
'अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?'
गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी ऑंखों से देखा-अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।
'आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दाँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।'
गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था। लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में वह आनंद कहाँ रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से बहुत दूर खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खाऍंगे। मैं गया को लेकर डाकबँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किए हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में मगन था।
मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।

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